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कौन सुनेगा बैंक कर्मियों की?

कौन सुनेगा बैंक कर्मियों की?

ज्यादा दिन नहीं हुए जब ट्विटर पर #13Days तथा #FakeNews वायरल हुए थे. दरअसल कुछ अख़बारों ने एक खबर प्रकाशित की थी कि मई महीने में बैंको में 13 दिनों की छुट्टियाँ पड़ रही है जिस वज़ह से लॉक डाउन के बीच ग्राहकों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है और उन्हें सलाह दी गई थी वे अपने ज़रूरी काम समय रहते निपटा लें. ध्यान दे कि, लॉक डाउन के बीच बैंकिंग को “एसेंशियल सर्विसेज” में शामिल किया गया है तथा जनता को केवल अत्यधिक ज़रूरी कामों के लिए ही बैंक जाने की सलाह दी गई है. ऐसे में क्या उपरोक्त खबर पढ़कर जनता में हडकंप मच जाने की सम्भावना नहीं थी?

खैर, सच्चाई यह है कि किसी भी सरकारी बैंकों के छुट्टी कैलेंडर के अनुसार किसी भी राज्य के किसी भी सरकारी बैंक में मई महीने में 13 छुट्टियाँ नहीं पड़ रही है. उपरोक्त खबर सरासर गलत थी. सोशल मीडिया पर इसका पुरजोर विरोध हुआ और ग्राहकों के बीच सच्चाई को लाने की कोशिश की गई. हालांकि उपरोक्त झूठी खबर प्रकाशित करने के बाद भी न तो अखबारों द्वारा कोई माफीनामा प्रकाशित किया गया और न ही प्रशासन स्तर पर कोई कार्रवाई की गई. हालाँकि आपको बता दे कि अगर उपरोक्त खबर पढ़कर बैंकों में भीड़ लग गई होती तो इसके लिए भी बैंकों को ही ज़िम्मेदार मानते हुए बैंक प्रबंधक के ऊपर “सोशल डिस्टेंसिंग” के नियमों का पालन न करने का आरोप लगते हुए त्वरित कार्रवाई की जाती. कई जगहों पर ऐसा वास्तव में हो भी चुका है.

क्या यह घटना बैंक कर्मियों के खिलाफ पूर्वाग्रह और द्वेष भावना नहीं है?

अब एक दूसरी घटना की ओर चलते हैं. यूपी के एक ग्रामीण इलाके के एक बैंक कर्मी कोरोना पॉजिटिव पाए गए. इस खबर को अख़बारों ने यह शीर्षक दिया “कोरोना पॉजिटिव बैंक कर्मी ने 20 गाँवों के 20 हज़ार ग्रामीणों को मुसीबत में डाला”

क्या यह द्वेष भावना से आगे बढ़कर अमानवीयता की पराकाष्ठा नहीं है? कोरोना वायरस महामारी के दौरान “एसेंशियल सर्विसेज” प्रदान करते हुए पाए गए यदि कोई डॉक्टर, पुलिसकर्मी, सफाई कर्मी आदि कोरोना पॉजिटिव पाए जाए तो उनके प्रति दया, ममता और दुआ जुबान पे आ जाती है. फिर बैंक कर्मियों के प्रति ऐसी दुर्भावना क्यों?

दरअसल काफी अरसे से बैंक कर्मियों के प्रति इस दुर्भावना का आम जनमानस में प्रचार प्रसार किया जा रहा हैं. जो अख़बार बैंकों की छुट्टियों की खबर प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं वही अख़बार कोरोना वायरस महामारी के दौरान रद्द हुई बैंक छुट्टियों के बारे में जानकारी देना ज़रूरी नहीं समझते.

हकीकत तो यह है इस महामारी में बैंक कर्मी जान पर खेल कर देश और जनसेवा में जुटे है. लेकिन उनकी सुध लेना तो दूर, उनकी सुनने वाला भी कोई नहीं है.

cबैंक कर्मियों और उनके परिवार को है कोरोना से बड़ा खतरा

गौरतलब है कि जिन हालातों में बैंक कर्मी काम कर रहे है वह खतरे से खाली नहीं है. आमतौर पर एक दिन में एक शाखा में लाखों-करोड़ो नकदी का लेन-देन होता है. ऐसे में नोटों द्वारा कोरोना वायरस संक्रमण फैलने की संभावना बहुत ज्यादा है. हालाँकि बैंकों में कर्मचारियों को सैनिटाइज़र और ग्लव्स उपलब्ध कराए गए है लेकिन हर नोट और दस्तावेज को सैनिटाइज़ कर पाना व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं है. “पब्लिक डीलिंग डिपार्टमेंट” होने के कारण बैंक कर्मी सबसे ज्यादा लोगों के संपर्क में आ रहे है. डॉक्टरों की तरह न तो उनके पास पीपीई किट उपलब्ध और न ही बचाव के तरीकों की चिकित्सकीय जानकारी. सारी सुरक्षा निजी एवं प्रबंधन स्तर पर की जा रही है. जहाँ डॉक्टरों और पुलिस कर्मियों के पास ड्यूटी वाली जगह पर ही रुकने का विकल्प है वही बैंक कर्मियों के साथ ऐसा नहीं है. दिन भर ग्राहकों की अधीर भीड़ का सामना करने के बाद वे घर लौटते है अपने परिवार के पास. और इस तरह वे न सिर्फ अपनी बल्कि अपने परिवार वालों की जान भी दांव पर लगाकर देश और जन सेवा में लगे हुए है.

भुला दिया जाता है बैंक कर्मियों का योगदान

यह पहली बार नहीं है जब बैंक कर्मियों के साथ ऐसा भेदभाव हो रहा है. इसके पहले नोटबंदी में भी बैंक कर्मियों ने जान-प्रण से देश और जन-सेवा की थी. ज्ञात हो कि नोट बंदी के दौरान केवल मातृत्व अवकाश और मेडिकल अवकाश को छोड़कर बाकि सभी प्रकार की छुट्टियाँ रद्द करके बैंक कर्मियों को ड्यूटी पर वापस बुला लिया गया था. साठ की उम्र तक पहुँच रहे बैंक कर्मियों से लेकर पूरे महीने की गर्भवती महिला बैंक कर्मियों ने भी आधी-आधी रात तक काम किया था. लेकिन इन सबकी चर्चा कही नहीं हुई.

खुद एक दूसरे का मनोबल बढ़ाते है

ऐसे में जब बैंक कर्मियों को न तो मीडिया का साथ मिल रहा है और न ही जनता की सहानुभूति, तब वे स्वयं ही एक-दूसरे का मनोबल बढ़ा रहे हैं. बैंक-कर्मियों ने जब खुद को कोरोना वॉरियर कहना शुरू किया तब जाकर सोशल मीडिया में भी थोड़ी-बहुत हलचल शुरू हुई.

ऐसी स्थिति में जब महामारी के कारण हम सभी भविष्य को लेकर अनिश्चित है तब हमारी ही सेवा में लगे बैंक-कर्मियों के प्रति हमारी थोड़ी सी सहानुभूति उनका मनोबल बढ़ा सकती है. इसके साथ-साथ बैंकिंग सेवाओं तथा नियमों के प्रति जागरूकता भी बैंक-कर्मियों और हमारी स्वयं की सुरक्षा में भी बहुत बड़ा योगदान कर सकती है.

डिजिटल अपनाये

आज सभी बैंक डिजिटल हो चुके हैं. सभी महत्त्वपूर्ण बैंकिंग सेवाएँ बैंकों के एप्प और फ़ोन बैंकिंग पर उपलब्ध है. कोई परेशानी आने पर ग्राहक सेवा केंद्र फ़ोन पर चौबीस घंटे उपलब्ध होता है. ऐसे में बैंक में जाने से बचे और अपने ज्यादा से ज्यादा डिजिटल बैंकिंग अपनाकरकरे. कोई परेशानी होने पर फ़ोन बैंकिंग का इस्तेमाल करे. पासबुक प्रिंटिंग के बजाए ई-स्टेटमेंट का विकल्प चुने.

बैंक-कर्मियों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया रखे

बस इतना महसूस कर ले कि बैंक-कर्मी भी आपकी तरह इंसान है और वे भी जीवन-यापन के लिए इस पेशे से जुड़े हैं. अपवाद हर जगह होते हैं, आपके कार्यस्थल पर भी होंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी बैंक-कर्मियों के प्रति अमानवीयता की हद तक दुराग्रह रखा जाए.

इस मुश्किल में घड़ी यह बहुत ज़रूरी है कि हम-आप सब एक दूसरे का सहारा बने, एक दूसरे का मनोबल बढाए और हमारी सुरक्षा और सेवा में लगे कोरोना वारियर्स से कोई दुर्भावना न करे. तभी हम इस कोरोना महामारी के खिलाफ जंग जीत पाएंगे.

(डिस्क्लेमर – उपरोक्त लेख में व्यक्त सभी विचार लेखक के निजी विचार और ये निओलस्टर मीडिया का प्रतिनिधित्व नहीं करते)

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